बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मी तेज है। एक ओर एनडीए के सभी घटक दल एकजुट हैं, तो दूसरी ओर विपक्षी महागठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर मंथन जारी है। हाल ही में राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और तेजस्वी यादव के बीच हुई बैठकों में गठबंधन की संभावनाएं टटोलने की कोशिशें की गईं, मगर कुछ भी ठोस नहीं निकल पाया।

इस पृष्ठभूमि में यह समझना ज़रूरी है कि राजद और कांग्रेस के रिश्तों का अतीत कैसा रहा है, और इस ‘कभी साथ, कभी अलग’ की राजनीति ने चुनावी नतीजों को कैसे प्रभावित किया।
कांग्रेस का कभी अजेय वजूद
आजादी के बाद से 1990 तक कांग्रेस ने बिहार की राजनीति पर वर्चस्व बनाए रखा। श्रीकृष्ण सिंह, बीपी मंडल और जगन्नाथ मिश्र जैसे नेताओं की अगुआई में पार्टी ने लंबे समय तक शासन किया। मगर 1989 के भागलपुर दंगों के बाद कांग्रेस का जनाधार तेजी से खिसकने लगा, जिसका फायदा लालू प्रसाद यादव ने उठाया।
1990 में लालू की जनता दल सत्ता में आई, और कांग्रेस 71 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद से कांग्रेस का गिरता ग्राफ कभी नहीं थमा।
कैसे पास आए राजद और कांग्रेस?
1997 में जब चारा घोटाले में फंसे लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राजद बनाया, तो कांग्रेस ने उनका समर्थन कर राबड़ी देवी की सरकार को बचाया। यहीं से दोनों पार्टियों की सियासी दोस्ती की शुरुआत हुई।
1998 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दोनों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। लेकिन सीटों की खींचतान और नतीजों में निराशा ने इस गठबंधन में खटास ला दी।
चुनावी सफर: कभी साथ, कभी अलग
2000: अलग-अलग लड़े, लेकिन बाद में फिर साथ आए।
2005: फरवरी में अलग हुए, अक्टूबर में साथ आए लेकिन नतीजे कमजोर रहे।
2010: कांग्रेस अकेले लड़ी, नतीजा – सिर्फ 4 सीटें।
2015: नीतीश, लालू और कांग्रेस साथ आए और बड़ी जीत हासिल की।
2020: गठबंधन बरकरार रहा, एनडीए को कड़ी टक्कर मिली, लेकिन सत्ता में नहीं आ पाए।

मौजूदा स्थिति और संभावनाएं
2024 में नीतीश कुमार फिर एनडीए में लौट आए, जिससे विपक्ष में हलचल बढ़ गई। अब 2025 के चुनावों में महागठबंधन के गठन को लेकर एक बार फिर बातचीत हो रही है। सवाल ये है कि बार-बार साथ और फिर अलग होने की इस कहानी से वोटर कितना प्रभावित होता है?
राजद और कांग्रेस के बीच यह गठबंधन कितनी मजबूती से टिकेगा, और क्या यह एनडीए को मात दे सकेगा, इसका जवाब तो चुनावी नतीजे ही देंगे। मगर इतना तय है कि बिहार की राजनीति में ये दोनों दल पिछले तीन दशकों से निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं — चाहे साथ हों या अलग।